Tuesday, December 28, 2010

------------ संघर्ष -----------




एक छोटा बच्चा
आँखों में मायूसी,
सीने में दर्द,
अधरों पर 
मुस्कान संजोये
दिखाता है
कुछ कलाबाजियां
सड़क के किनारे 
महज़ चन्द सिक्कों कि खातिर
क्योंकि
सिक्कों कि चमक में 
वह देखता है
अपना धुंधला भविष्य
भोजन, वस्त्र और एक स्थायी जीवन
लोग देखते हैं
इसकी कलाबाजियाँ
और दबा लेते हैं 
दांतों तले उंगलियाँ
खेल के समापनोपरांत
वह फैलाता है अपनी नन्ही हथेली
लोग चल देते हैं वहाँ से 
वह रह जाता है स्तब्ध
और देखता रह जाता है
रूठकर जाती अपनी किस्मत को
माथे पर पड़ता है बल 
और खिंच जाती हैं कुछ लकीरें
फिर अपना सामान समेटे 
चल देता है अन्यत्र
कालाबाजियाँ दिखाने 
                               ---आनंद सावरण---   



5 comments:

Anonymous said...

excellent!!!
इसमें संवेदना का स्तर लेखकीय धर्म परायणता का परिचायक है ,
ह्रदय में संवेदना पैदा होना मानव धर्म परायणता की पहचान है और
इसी संवेदना को पाठक के ह्रदय में उतार देना लेखकीय धर्मं परायणता
है. गर्व है की आप एक धर्म परायण लेखक हैं .विधा मायने नहीं रखती ,
जो मायने रखता है वो है संवेदना का हू-बहू प्रस्तुति करण

Anonymous said...

कुछ और कहो ,कुछ और लिखो
इस यायावर का ठौर लिखो
जो कहा नहीं है अब तक भी
उन पीडाओं का दौर लिखो .
कुछ व्यथा लिखो ,उन्माद लिखो
पर लिखो तो दोनों साथ लिखो
भूंखे बच्चे के भोजन सा
बस लिखो कौर दो कौर लिखो
इस यायावर...................

ASHUTOSH SINGH said...

bahut khoob bhai jaan,,,,,,,,,,
keep it up bhai ......
bahut aage jaoge gai........

Yogeshwar Vashishtha said...

excellent poetry

vishvesh singh said...

wah kya bat hai.............
CHIPAK RAHA HAI BADAN PE LAHU SE PAIRAHAN,AB HAMARE JEB KO HAJTE RAFU KYA HAI....!
RAGO ME DOURANE FIRNE KE HAM NAHI KAYAL,JAB AANKH SE HI NA TAPKA TO LAHU KYA HAI!!!!!