Monday, February 28, 2011

---दिल तो दे ही दिया है,जान तुझको देंगे हम---

दिल तो दे ही दिया है,जान तुझको देंगे हम
कसम खुदा की ये ईमान तुझको देंगे हम
                                                        मुझसे क्या भूल हुयी,तुने न मुझे माफ़ किया
                                                        हाय रब्बा मेरे तूने भी न इन्साफ किया
घर तो क्या छोटा सा संसार तुझको देंगे हम 
कसम खुदा की सारा प्यार तुझको देंगे हम
                                                        दिल में मेरे सपने संजोये मैंने तेरे लिए
                                                        सारी दुनिया के रंग रंगाये मैंने तेरे लिए
चाँद सूरज तो क्या आकाश तुझको देंगे हम
हज़ार रंगों की बरसात तुझको देंगे हम 
                                                        मरे प्रिये केवल मेरे पे तुम विश्वास करो
                                                        सारी दुनियां को छोड़ मेरे पे तुम आस धरो 
आदि से अंत तक सर्वस्व तुझको देंगे हम 
कसम खुदा की ये वर्चस्व तुझको देंगे हम                
                                                       ---आनंद सावरण ---

Friday, February 25, 2011

---------क्या लिखूं?--------

क्या लिखूं?
रस अलंकार जोड़कर 
या काव्यधारा छोड़कर
हुआ आज मैं असहाय
नहीं सूझ रहा कोई उपाय
शब्द नहीं रहे हैं सध
कलम गयी ही बंध
सोचता हूँ मैं पड़ा
कहाँ खो गयी मेरी प्रेरणा
लिखने का करता हूँ प्रयास
पर शब्द नहीं अब मेरे पास
जग रहा नहीं कोई भाव है
ज़िन्दगी तैरती जाती
जैसे बिन पानी के नाव है....
                                  ---आनंद सावरण---

Wednesday, February 9, 2011

--------प्रीति का रंग--------

प्रीति का रंग जब से मैंने चढ़ा पाया है
चाँद सूरज तो क्या आकाश नया पाया है
                                                      बीता पतझड़ लगा मौसम नए बहारों का
                                                      प्रकाश नित नया झलका नए सितारों का
दूर कितनी भी रहो फिर भी मुझको लगता है
साथ मेरे हर एक पल तुम्हारा साया है
                                                      प्रीति का रंग जब से मैंने चढ़ा पाया है
                                                      चाँद सूरज तो क्या आकाश नया पाया है
विचार मुक्त हैं गीतों में नया भाव जगा
छंद मुक्तक और दोहों में नया चाव जगा
                                                      काफिया तंग था मेरा पर अब तो ऐसा लगता है
                                                      भावगीतों ने नया मर्म फिर जगाया है
प्रीति का रंग जब से मैंने चढ़ा पाया है
चाँद सूरज तो क्या आकाश नया पाया है
                                                       बांसुरी होंठ चढ़ी धुन भी नयी सजने लगी
                                                       कली भी पुष्प में अब रंग नया भरने लगी
हंसी में जलतरंग साँसों में उसके मधु सी महक
दिल है तेरा सातों कंचन भी उसकी माया है
                                                        प्रीति का रंग जब से मैंने चढा पाया है
                                                         चाँद सूरज तो क्या आकाश नया पाया है
                                                                                                ---आनंद सावरण---

Wednesday, February 2, 2011

----चित्र कैसे बनता है?----


चित्र निरूपण इसलिए ताकि स्वयं सृजन में डूब जाएँ|जीवन एक कला है|कला एक ध्यान है|कोई भी कार्य ध्यान बन सकता है,यदि हम उसमें डूब जाएँ|इसलिए तकनीशियन मात्र न बने रहे|यदि आप केवल एक तकनीशियन तो पेंटिंग अपनी पूर्णता को कभी नहीं पाएगी,वह ध्यान नहीं बन सकती|हमें पेंटिंग में पूरी तरह डूब जाना होगा|पागल की तरह उसमें खो जाना होगा|इतना खो जाना होगा कि हमें यह भी खबर न रहे कि हम कहाँ जा रहे हैं,कि हम क्या कर रहे हैं,कि हम कौन हैं?यह पूरी तरह खो जाने कि स्थिति ही ध्यान होगी|इसे घटने दें|चित्र हम न बनाएं बल्कि उसे बनने दें|मेरा मतलब यह नहीं कि हम आलसी हो जाएँ|फिर तो वह कभी बन ही नहीं पायेगा|हमें पूरी तरह से सक्रिय होना है,फिर भी कर्ता नहीं बना है|यह पूरी कीमिया है,पूरी कला है|
कोरे कागज़ पर सहज रहे कुछ मिनटों के लिए ध्यान में उतर जाएँ|जीवन रुपी कैनवास के सामने शांत हो कर बैठ जाएँ|यह सहज लेखन जैसा होना चाहिए जिसमें हम लेखनी हाँथ में लेकर शांत बैठ जाते हैं और अचानक हाँथ में स्पंदन सा महशूस होता है|हम भलीभांति जानते हैं की हमने कुछ नहीं किया|हम तो सिर्फ शांत-मौन बैठकर प्रतीक्षा कर रहे थे|एक स्पंदन सा हांथों में होता है और वह खुद-ब-खुद गतिमान हो उठता है,और कुछ उतरने लगता है|
यह सृजन आहिस्ता प्रारंभ करें,ताकि आप बीच में न आयें|आपके शोख ज़ज्बात सृजन काल को हिला डुला न दें|आप बाद में मायूश न हों|आप वर्षा काल की तड तड पड़ती हुयी बूंदों की चोट को सहते गुलाब की पंखुड़ियों की तरह सहज रहे|जो भी भीतर से बहे बहने दें,और उसमें लीन हो जाएँ|शेष सब कुछ भूल जाएँ|कला सिर्फ कला के लिए तथा समाज के लिए कुछ अच्छा करने के लिए हो तभी वह ध्यान है|और कोई लक्ष्य नहीं होना चाहिए|
हमें तो अपनी पेंटिंग में,अपने नृत्य में,श्वास में,गीत में,रचना में,अपने जीवन में पूरी तरह खो जाना चाहिए|जो भी हम कर रहे हैं उसमें बिना किसी नियंत्रण के हमें पूरी तरह खो जाना चाहिए|शेष कुछ न बचे,अपने आप जीवन रुपी वीणा सहसा झनझना उठेगी|  
                                                                                                                                 ---आनंद सावरण---