बढ़ती जाती है जिज्ञासा
जीवन की कुटिल कहानी में
बढ़ती जाती है प्यास बहुत
ज्यों-ज्यों घुसता हूँ पानी में
प्यासा तन है प्यासा मन है
प्यासा जीवन निज आँगन में
जैसे प्यासा बादल कोई
भटक रहा हो सावन में
जब-जब में सोचा करता
जीवन को जी लूँगा हंसकर
तब-तब में रोया करता
अपने जीने के ढर्रे पर
जब-जब में हाँथ बढाता हूँ
सुन्दरता का मतवाला होकर
तब-तब गुलाब न पाता हूँ
कांटे घायल कर देते कर
जब-जब में चलने की कोशिश में
मैं अपना पाँव बढाता हूँ
तिल भर चलने की बात दूर
मैं वहीँ ठोकरें खाता हूँ
व्यर्थ है मेरा जीना
ये जीना भी कोई जीना है
जिसको जीने का नाम मिला
लगता है जैसे रोना है
कुछ भी हो
मैं जीने की कभी आश छोड़ ना पाऊंगा
कितना भी में थकता जाऊं
मैं मंजिल स्वयं बनाऊँगा
में तिनका हूँ तो क्यों रोऊँ
कुछ तो तूफ़ान को रोकूंगा
बह जाऊं हवा के साथ अगर
फिर भी मैं जंग जीत लूँगा
हवा बहा ले जाए मुझे
सूखी नदी में डुबोने को
फिर भी जीत मेरी होगी
कुछ खोने पर कुछ पाने को
डूब रहा हो व्यक्ति कोई
मैं उसको आश बढूंगा
उसे बचा न पाने पर भी
मैं विजयी कहलाऊँगा
----आनंद सावरण ---
जीवन की कुटिल कहानी में
बढ़ती जाती है प्यास बहुत
ज्यों-ज्यों घुसता हूँ पानी में
प्यासा तन है प्यासा मन है
प्यासा जीवन निज आँगन में
जैसे प्यासा बादल कोई
भटक रहा हो सावन में
जब-जब में सोचा करता
जीवन को जी लूँगा हंसकर
तब-तब में रोया करता
अपने जीने के ढर्रे पर
जब-जब में हाँथ बढाता हूँ
सुन्दरता का मतवाला होकर
तब-तब गुलाब न पाता हूँ
कांटे घायल कर देते कर
जब-जब में चलने की कोशिश में
मैं अपना पाँव बढाता हूँ
तिल भर चलने की बात दूर
मैं वहीँ ठोकरें खाता हूँ
व्यर्थ है मेरा जीना
ये जीना भी कोई जीना है
जिसको जीने का नाम मिला
लगता है जैसे रोना है
कुछ भी हो
मैं जीने की कभी आश छोड़ ना पाऊंगा
कितना भी में थकता जाऊं
मैं मंजिल स्वयं बनाऊँगा
में तिनका हूँ तो क्यों रोऊँ
कुछ तो तूफ़ान को रोकूंगा
बह जाऊं हवा के साथ अगर
फिर भी मैं जंग जीत लूँगा
हवा बहा ले जाए मुझे
सूखी नदी में डुबोने को
फिर भी जीत मेरी होगी
कुछ खोने पर कुछ पाने को
डूब रहा हो व्यक्ति कोई
मैं उसको आश बढूंगा
उसे बचा न पाने पर भी
मैं विजयी कहलाऊँगा
----आनंद सावरण ---