Tuesday, January 25, 2011

---मन के हारे हार है, मन के जीते जीत---

बढ़ती जाती है जिज्ञासा
जीवन की कुटिल कहानी में
बढ़ती जाती है प्यास बहुत
ज्यों-ज्यों घुसता हूँ पानी में
प्यासा तन है प्यासा मन है
प्यासा जीवन निज आँगन में
जैसे प्यासा बादल कोई
भटक रहा हो सावन में
जब-जब में सोचा करता
जीवन को जी लूँगा हंसकर
तब-तब में रोया करता
अपने जीने के ढर्रे पर
जब-जब में हाँथ बढाता हूँ
सुन्दरता का मतवाला होकर
तब-तब गुलाब न पाता हूँ
कांटे घायल कर देते कर
जब-जब में चलने की  कोशिश में
मैं अपना पाँव बढाता हूँ
तिल भर चलने की बात दूर
मैं वहीँ ठोकरें खाता हूँ
व्यर्थ है मेरा जीना
ये जीना भी कोई जीना है
जिसको जीने का नाम मिला
लगता है जैसे रोना है
कुछ भी हो
मैं जीने की कभी आश छोड़ ना पाऊंगा
कितना भी में थकता जाऊं
मैं मंजिल स्वयं बनाऊँगा
में तिनका हूँ तो क्यों रोऊँ
कुछ तो तूफ़ान को रोकूंगा
बह जाऊं हवा के साथ अगर
फिर भी मैं जंग जीत लूँगा
हवा बहा ले जाए मुझे
सूखी नदी में डुबोने को
फिर भी जीत मेरी होगी
कुछ खोने पर कुछ पाने को
डूब रहा हो व्यक्ति कोई
मैं उसको आश बढूंगा
उसे बचा न पाने पर भी
मैं विजयी कहलाऊँगा
                      ----आनंद सावरण ---





Wednesday, January 19, 2011

--------अनुत्तरित प्रश्न --------

मष्तिष्क कि अंतस गहराइयों में
जीवन कि मजबूत अर्गलाओं से
बंधे सहमे कुछ अनुत्तरित प्रश्न
आंदोलित कर देते हैं अंतर्मन को
और लगा देते हैं प्रश्चिन्ह सामाजिक व्यवस्था पर
आखिर क्यों?
दुनियाँ को रोटी देने वाला किसान
सोता है भूखे पेट खलिहानों में
बड़ी-बड़ी इमारतों का सृजनकर्ता
मजदूर रहता है फूश के झोपड़ों में
आखिर क्यों?
मजदूर के खून कि कीमत
कम आंकी जाती है मोटे सेठ के पसीने से
आखिर क्यों?
धन को माया और ईश्वर को सर्वरक्षक बताने वाले
आधुनिक संत करते हैं धन का महा सृजन
और देते रहते हैं प्रवचन
सुरक्षा गार्डों कि अनिवार्य मौजूदगी में
आखिर क्यों?
धनी व्यक्ति को हो जाता है माधुमेय
सब कुछ होते हुए भी वह पीता है सिर्फ करेले का कड़वा जूस
और एक जो है गरीब
सोता है भूखे पेट
सड़क के किनारे
                     ---आनंद सावरण ---

Sunday, January 16, 2011

---अपनी पहचान एक विन्दु के रूप में---

समष्टि महान है.गुरु है,गंभीर है|किन्तु समष्टि का आधार क्या है?प्रत्येक प्रतिपाद्य का एक आद्य होता है|उसी तरह समष्टि का व्यष्टि है|सिन्धु का आधार विन्दु है|प्रत्येक समष्टि व्यष्टियों के समूह से बनती है|सिन्धु का मूल आधार विन्दु है|विन्दु सिन्धु में अपनी पहचान ,अस्तित्व खो देता है,किन्तु यह विलयन,अस्तित्व का समर्पण अपने को खो देना,बिंदु को सिन्धु में गँवा देना ,एक बड़ी सत्ता के लिए,आत्मसमर्पण,यह भाव कितना उद्दात है|उदग्र रूप से अपने को विलीन कर देना,अपनी संपूर्ण विशेषताओं को एक बड़े समुदाय में मिला देना महानता की,बड़प्पन की पराकाष्ठा है|
विन्दु का अपने आप में क्या महत्व है,यह सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों तरीकों से महत्त्वपूर्ण है|स्वाति की एक विन्दु जो बादलों से गिरती है रेगिस्तान में विलीन हो जाती है |वनस्पति पर गिरकर मोती सी चमक देती है|यदि इसे कोई विषधर पान कर ले तो वह विष बिंदु बन जाती है|यही बिंदु यदि खुली खुली हुयी सीपी में पड़ जाए तो मोती बन जाती है|जीवन का विन्दु अनमोल है |यदि यह सीपी में पड़ जाए तो मोती बन जाता है,यह विषधर पान कर ले तो विष बिंदु बन जाता है|प्रत्येक बिंदु स्वयं व्यष्टि रूप में है|उसकी सकारात्मक क्षमता ,अपने परिपूर्ण रूप में किसी भी समुदाय में खो देने से बड़ी हैं|स्वयं को प्रत्येक स्थल पर अपनी पहचान स्पष्ट करते हुए अपने विचारों,सोच,व्यक्तित्व,कार्यक्षमता ,कर्मठता ,एवं कृतित्व से संपूर्ण समाज एवं मानवता को आप्यायित करते हुए वक्तित्व का निदर्शन ही सिन्धुवत है|
                                                                  ------आनंद सावरण -------