झंझावातों
हाहाकारों के बीच
बुझती हुयी दीपशिखा
सामाजिक अनाचार
लुप्त प्राय आचार
मूक संवेदना
असहाय वेदना
किंकर्तव्यविमूढ
न्यायपथारूढ़
कुछ कर भी पायेगा
या दीपक बुझ जाएगा?
आत्मा के तेल
और प्रज्ञा की बत्ती से
जलेगा
माम ओर से न बचेगा
हाथ भी जलेगा
लौ हो प्रज्वलित इतना
झंझावत हो चाहे जितना
फर्क न पड़े
रहे पथ पर अड़े
स्वयं को जलाओ
प्रकाश फैलाओ
दीप संदीप प्रज्वलित कर
बुझों को जलाओ
बनो ऊर्ध्वरेखा
बनाओ प्रणेता
व्यक्तित्व के मान का
समाज के उत्थान का
स्वतन्त्रता के गान का
स्वतन्त्रता के गान का
यही है क्षण
तुम्हारे प्रयाण का
-----आनंद सावरण----