Monday, April 18, 2011

----चाँद का मुंह टेढा है----















आसमान में चमकता चाँद 
अपनी फीकी मुस्कान संजोये 
सैलाब बनकर उमड़ता है 
लोगों की कल्पनाओं में
उनके हृदायांकुर से
फूट पड़ती हैं 
संबंधों और भावनाओं की
कपोल कल्पनाएँ
कभी मामा बनकर 
बच्चों को कराता है दुग्धपान 
तो कभी खिलौना बन 
बहलाता है उनका मन 
कभी बनता है 
प्रेमियों के लिए 
प्रेमिका का मुख मंडल
कभी बनाता है
करवाचौथ में स्त्रियों का पूज्य 
पति की उम्र बढाने को 
तो कभी बनता है पोस्टमैन 
भाइयों तक पहुचाता है
बहनों का सन्देश
पर कभी-कभी 
चाँद बनकर उभरता है
टूटे दिलों में असहनीय दर्द 
और कभी अपनी सुन्दरता के लिए
बन जाता है इर्ष्या का पात्र 
जब कहीं से कोई "मुक्तिबोध"
कहता है
चाँद का मुंह टेढा है 
                            ---आनंद सावरण ---

Sunday, April 10, 2011

---अन्ना के सत्याग्रह पर एक विचार ---

आज पता नहीं क्यों मन में यह द्वंद्व उठ रहा है,कि हमारे समाज सेवियों को अपने ही राष्ट्र,अपनी ही मिटटी,अपने ही लोगों के बीच,अपने ही देश की राजनीति से अपनी ही बात मनवाने के लिए भूख हड़ताल या सत्याग्रह जैसे आन्दोलन करने पड़ रहे हैं?आखिर क्यों आज हम अपने को इतना विवश महशूस कर रहे हैं?
आज लोग अन्ना हजारे को गांधी जी का दूसरा रूप मान रहे हैं,क्योंकि अन्ना और राष्ट्रपिता के अपनी बात मनवाने के तरीके लगभग एक सामान हैं,फर्क सिर्फ इतना है की गांधी जी अपनी बात मनवाने के लिए अंग्रेजों से,विदेशियों से सत्याग्रह करते थे और आज का गाँधी अपनों के ही सामने विवश है|
  जब आज सरकार "लोकपाल विधेयक"बनाने के लिए अन्ना के समक्ष प्रस्तुत है तो अन्ना इस सत्याग्रह को स्वतन्त्रता की दूसरी लड़ाई स्वीकार करते हैं,अब मान में यह प्रश्न स्वतः जन्म लेता है कि अपनों से कैसी स्वतंत्रता?यदि हम अपनों से स्वतंत्र होने का प्रयास करेंगे तो हम स्वतंत्र नहीं अपितु "स्वछन्द" कहलायेंगे|तब "स्वतन्त्रता" और "स्वछंदता" इन दोनों शब्दों का अर्थ ही गौण हो जाएगा|
भारतीय समाज,हमारे देशवासी,अन्ना में आज राष्ट्रपिता तलाश रहे हैं,और अन्ना हमें अपनों से ही स्वतंत्र कराने का प्रयास कर रहे हैं,तो क्या १९५० में हमारे अपने ही देश के नेताओं द्वारा,बुद्धिजीवियों द्वारा दिया गया तंत्र ही गलत है?क्या उन लोगों ने हमारे हांथों में स्वतत्रता की जगह परतंत्रता का परचम थमाया है?
लोग अन्ना जी की  तुलना गांधी जी से कर रहे हैं,गांधी जी अंग्रेजों से स्वतन्त्रता की लड़ाई लादे ठेयौर हमारे हांथों में लोकतंत्र जैसा मज़बूत तंत्र थमाए थे,तो क्या गांधी जी,आंबेडकर जी ,नेहरू जी द्वारा बनाया गया संविधान ठीक नहीं था?
आखिर क्यों?आज का गांधी (अन्ना) को अपनों से ही सत्याग्रह करना पड़ रहा है?आज का गांधी क्यों अपने आप को असहाय और विवश महशूस कर रहा है?
क्या १९५० से बनी हुयी व्यवस्था से उपजी हुयी दुर्व्यवस्था के हम ज़िम्मेदार नहीं हैं?न अपनी जगह गांधी गलत हैं और न ही अपनी जगह अन्ना गलत हैं|गांधी जी लड़े थे स्वतन्त्रता के लिए और अन्ना लड़ रहे हैं स्वतंत्र भारत में भ्रष्टाचार से स्वतन्त्रता पाने के लिये|
इस व्यवस्था से उपजी दुर्व्यवस्था के मूल में कहीं न कहीं हम स्वयं ही हैं,यहाँ इस दुर्व्यवस्था की गिरफ्त में सबसे ज्यादा आम आदमी ही है|सरकार योजनायें हमारे लिये बनाती है,जिससे हम उनका उपयोग कर के अपना जीवन व्यवस्थित धग से व्यतीत कर सकें|परन्तु ये योजनायें कब आयीं और कब गयीं किसी को कानोंकान खबर तक नहीं होती,क्या हममें जागरूकता की कमी नहीं है,गग्रूक्ता के मूल में शिक्षा है|आज भी हमारे देश के राष्ट्रीय राजमार्गों से ५ कि.मी. नीचे जाने पर हमें अपने देश की शिक्षा का पता लग जाता है,आज होटलों में बच्चे काम करते हुए देखे जाते हैं,हमारी सरकार ने इसके लिये भी (शिक्षा का अधिकार)योजना हमारे लिये बनाई है|जिसमें ६ से १४ वर्ष तक के बच्चों की शिक्षा का निःशुल्क प्रावधान है, परन्तु हम उसका उपयोग नहीं करना जानते,जब हमारे समाज में शिक्षा नहीं होगी तो जागरूकता का प्रश्न अपने आप ही समाप्त हो जाता है,और जब जागरूकता नहीं होगी तो हम एक सही सरकार कैसे चुन सकते हैं?जब हमें ज्ञान ही नहीं है कि कौन प्रत्याशी सही है और कौन गलत?
फिर भी यह देख कर अच्छा लगता है कि हमारे देश में धीरे-धीरे पारदर्शिता बढ़ रही है|हमारे पास (सूचना का अधिकार,लोकवाणी ) जैसी शक्तियां हैं|परन्तु हम यदि शिक्षित  ही नहीं होंगे तो हमारे लिये इन प्रावधानों का क्या मतलब है?
आज हमारे देश में भ्रष्टाचार ने एक व्यापक रूप ले लिया है,यदि ध्यान देंगे तो पता लगेगा कि कहीं न कहीं इस व्यवस्था से उपजी हुयी दुर्व्यवस्था के मूल में हम लोग ही हैं,ऐसे में कोई अन्ना या गांधी क्या कर सकता है?ऐसे ही समाया का पूर्वानुमान शायद कवी इकबाल ने कर लिया था तभी उन्होंने कहा था-
     "संभल जाओ ऐ हिन्दोस्तान वालों,
      क़यामत आने वाली है 
      तुम्हारी बरबादियों के तस्करे हैं आसमानों में|
      ना संभलोगे तो मिट जाओगे एक दिन,
      तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में||" 
फिर भी आशा कि किरण अभी बाकी है.स्थिति को बद से बदतर होने से बछाया जा सकता है|लेकिन इसके लिये हमको आपसी भेदभाव भूलकर,प्रेमपूर्वक,राष्ट्रीयता के भाव में रमकर,दृढ़ प्रतिज्ञ आज एक साथ स्थितियों को बदलने का प्रयास किया जाना चाहिए|ऐसी  स्थति पर राष्ट्र कवि श्री मैथली शरण गुप्ता जी द्वारा प्रणीत नमन पंक्तियाँ अक्षरसः उपयुक्त प्रतीत होती हैं-
       "हम कौन थे, क्या हो गए हैं,और क्या होंगे अभी|
        आओ विचारें आज मिलकर हल होंगी समस्याएं सभी||"
                                                                                                                           ---आनंद सावरण ---