Friday, November 11, 2011

--------------------प्रयाण ---------------

झंझावातों
              हाहाकारों के बीच 
बुझती हुयी दीपशिखा 
सामाजिक अनाचार  
लुप्त प्राय आचार 
मूक संवेदना
                  असहाय वेदना
किंकर्तव्यविमूढ
                    न्यायपथारूढ़
कुछ कर भी पायेगा 
                     या दीपक बुझ जाएगा?
आत्मा के तेल 
                   और प्रज्ञा की बत्ती से 
                                  जलेगा
माम ओर से न बचेगा 
हाथ भी जलेगा 
                   लौ हो प्रज्वलित इतना 
                    झंझावत हो चाहे जितना
फर्क न पड़े
रहे पथ पर अड़े 
                   स्वयं को जलाओ
                   प्रकाश फैलाओ
दीप संदीप प्रज्वलित कर
बुझों को जलाओ
                   बनो ऊर्ध्वरेखा 
बनाओ प्रणेता 
व्यक्तित्व के मान का
समाज के उत्थान का
स्वतन्त्रता के गान का 
                  यही है क्षण
                तुम्हारे प्रयाण का  
                                   -----आनंद सावरण----

Thursday, September 8, 2011

---मेरे हर शब्द में तुम ही तुम समाई हो...... ---

तेरे साथ हुआ जीवन आज फूलों के रंगों में 
मन आज नाचे गोया सागर बीच तरंगों में
                                                                यौवन आ रहा आज देखो फिर से उमंगों में
                                                                भावनाएं उड़ रही हैं आज गगन बीच पतंगों में
मेरे गीतों में तुम फिर से आज आई हो
साथ तुम आज नयी फिर से महक लायी हो
                                                              मेरे अंतस की तुम बनी आज परछाईं हो
                                                              मेरे हर शब्द में तुम ही तुम समाई हो......
                                                                                                  ---आनंद सावरण ---

Wednesday, May 25, 2011

---तेरे संग हूँ, पर जो दूरी है समझता हूँ---

 तेरे संग हूँ पर जो दूरी है समझता हूँ
 कुछ तेरी कुछ अपनी मजबूरी समझता हूँ
                                                           समझ कर भी नहीं हूँ मैं कुछ भी मैं यूं समझ पाता 
                                                            मैं तुझमे खो गया इतना की खुद को पा नहीं पाता
 हो तुम मुझसे दूर पर तुमको दूर मैं मान लूं कैसे?
 मैं प्राणों को अपनी श्वासों से दूर जान लूं कैसे?
                                                            तू ही बता अब इन गीतों को मैं पहचान दूं कैसे?
                                                            तेरे ही इन गीतों को मैं अपनी तान दूं कैसे? 
                                                                                           ---आनंद सावरण---

Sunday, May 22, 2011

-----नारी सशक्तिकरण----

नारी!तुम केवल श्रद्धा हो,विश्वास रजत नग पग तल में 
पीयूष श्रोत ही बहा करो;जीवन के सुन्दर समतल में

उपर्युक्त पंक्तियाँ प्रसाद (जय शंकर प्रसाद)जी ने लिखी नहीं अपितु यह वाक्षणयमान है कि नारियों के प्रसादपर्यंत यह पंक्तियाँ उनकी लेखनी से नारी को परिभाषित करने के लिए स्वतः फूट पड़ी हैं|
नारी, त्याग,प्रेम,बलिदान,ममता,समर्पण,वफ़ा आदि भाव आत्मसात किये हुए है उसे एक शब्द में श्रद्धा कह देना ही उचित है |आज हमारे  परिवारों की धुरी भी नारी ही है|हमारे घर के पर्यावरण,सारे सामाजिक सरोकारों के पीछे भी नारी शक्ति ही विद्यमान है|नारी ही ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है |
आज से नहीं बल्कि हम ऋग्वैदिक काल को भी देखेंगे तो पायेंगे की मैत्रेयी,पुष्पा जैसी भी नारियां हमारे समाज में थीं जो अपने ज्ञान के बलबूते पर सद्भाव और वसुधैव कुटुम्बकम की बात करती थी|
नारियों को हमारे समाज में पहले से ही अच्छी स्थिति प्राप्त है|भारत में तो पहले से ही "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते ,रमयंते तत्र देव " अर्थात जहां नारी  कि आराधना होती है वहाँ देवताओं का निवास होता है,को मान्यता प्राप्त है|
आज की नारी अबला नहीं अपितु सबला है|नारी की सशक्तिकरण के नाम पर उसको आरक्षण या आवश्यकता   से अधिक सुविधायें  देकर उसको कमज़ोर नहीं करना है ,बल्कि उसको और सशक्त बनाने के लिए उसके अंतर्मन को जगाना होगा उसको रानी लक्ष्मीबाई,पन्ना धाय,हाडा रानी की याद दिलानी होगी| 
आज हमारे परिवारों में भी मैत्रेयी,पुष्पा,लक्ष्मीबाई विद्यमान हैं,आवश्यकता सिर्फ उनको पहचानने की है|इसी भाव को शब्दों के माध्यम से मुखरता देते हुए किसी कवि ने कहा है-

पूरी ज़मीन साथ दे तो और बात है
हम (पुरुष ) नारियों का साथ दें तो और बात है| 
चल तो लेते हैं लोग एक पाँव  पर 
पर दूसरा साथ दे तो और बात है||  
                                               ---आनंद सावरण ---

Monday, April 18, 2011

----चाँद का मुंह टेढा है----















आसमान में चमकता चाँद 
अपनी फीकी मुस्कान संजोये 
सैलाब बनकर उमड़ता है 
लोगों की कल्पनाओं में
उनके हृदायांकुर से
फूट पड़ती हैं 
संबंधों और भावनाओं की
कपोल कल्पनाएँ
कभी मामा बनकर 
बच्चों को कराता है दुग्धपान 
तो कभी खिलौना बन 
बहलाता है उनका मन 
कभी बनता है 
प्रेमियों के लिए 
प्रेमिका का मुख मंडल
कभी बनाता है
करवाचौथ में स्त्रियों का पूज्य 
पति की उम्र बढाने को 
तो कभी बनता है पोस्टमैन 
भाइयों तक पहुचाता है
बहनों का सन्देश
पर कभी-कभी 
चाँद बनकर उभरता है
टूटे दिलों में असहनीय दर्द 
और कभी अपनी सुन्दरता के लिए
बन जाता है इर्ष्या का पात्र 
जब कहीं से कोई "मुक्तिबोध"
कहता है
चाँद का मुंह टेढा है 
                            ---आनंद सावरण ---

Sunday, April 10, 2011

---अन्ना के सत्याग्रह पर एक विचार ---

आज पता नहीं क्यों मन में यह द्वंद्व उठ रहा है,कि हमारे समाज सेवियों को अपने ही राष्ट्र,अपनी ही मिटटी,अपने ही लोगों के बीच,अपने ही देश की राजनीति से अपनी ही बात मनवाने के लिए भूख हड़ताल या सत्याग्रह जैसे आन्दोलन करने पड़ रहे हैं?आखिर क्यों आज हम अपने को इतना विवश महशूस कर रहे हैं?
आज लोग अन्ना हजारे को गांधी जी का दूसरा रूप मान रहे हैं,क्योंकि अन्ना और राष्ट्रपिता के अपनी बात मनवाने के तरीके लगभग एक सामान हैं,फर्क सिर्फ इतना है की गांधी जी अपनी बात मनवाने के लिए अंग्रेजों से,विदेशियों से सत्याग्रह करते थे और आज का गाँधी अपनों के ही सामने विवश है|
  जब आज सरकार "लोकपाल विधेयक"बनाने के लिए अन्ना के समक्ष प्रस्तुत है तो अन्ना इस सत्याग्रह को स्वतन्त्रता की दूसरी लड़ाई स्वीकार करते हैं,अब मान में यह प्रश्न स्वतः जन्म लेता है कि अपनों से कैसी स्वतंत्रता?यदि हम अपनों से स्वतंत्र होने का प्रयास करेंगे तो हम स्वतंत्र नहीं अपितु "स्वछन्द" कहलायेंगे|तब "स्वतन्त्रता" और "स्वछंदता" इन दोनों शब्दों का अर्थ ही गौण हो जाएगा|
भारतीय समाज,हमारे देशवासी,अन्ना में आज राष्ट्रपिता तलाश रहे हैं,और अन्ना हमें अपनों से ही स्वतंत्र कराने का प्रयास कर रहे हैं,तो क्या १९५० में हमारे अपने ही देश के नेताओं द्वारा,बुद्धिजीवियों द्वारा दिया गया तंत्र ही गलत है?क्या उन लोगों ने हमारे हांथों में स्वतत्रता की जगह परतंत्रता का परचम थमाया है?
लोग अन्ना जी की  तुलना गांधी जी से कर रहे हैं,गांधी जी अंग्रेजों से स्वतन्त्रता की लड़ाई लादे ठेयौर हमारे हांथों में लोकतंत्र जैसा मज़बूत तंत्र थमाए थे,तो क्या गांधी जी,आंबेडकर जी ,नेहरू जी द्वारा बनाया गया संविधान ठीक नहीं था?
आखिर क्यों?आज का गांधी (अन्ना) को अपनों से ही सत्याग्रह करना पड़ रहा है?आज का गांधी क्यों अपने आप को असहाय और विवश महशूस कर रहा है?
क्या १९५० से बनी हुयी व्यवस्था से उपजी हुयी दुर्व्यवस्था के हम ज़िम्मेदार नहीं हैं?न अपनी जगह गांधी गलत हैं और न ही अपनी जगह अन्ना गलत हैं|गांधी जी लड़े थे स्वतन्त्रता के लिए और अन्ना लड़ रहे हैं स्वतंत्र भारत में भ्रष्टाचार से स्वतन्त्रता पाने के लिये|
इस व्यवस्था से उपजी दुर्व्यवस्था के मूल में कहीं न कहीं हम स्वयं ही हैं,यहाँ इस दुर्व्यवस्था की गिरफ्त में सबसे ज्यादा आम आदमी ही है|सरकार योजनायें हमारे लिये बनाती है,जिससे हम उनका उपयोग कर के अपना जीवन व्यवस्थित धग से व्यतीत कर सकें|परन्तु ये योजनायें कब आयीं और कब गयीं किसी को कानोंकान खबर तक नहीं होती,क्या हममें जागरूकता की कमी नहीं है,गग्रूक्ता के मूल में शिक्षा है|आज भी हमारे देश के राष्ट्रीय राजमार्गों से ५ कि.मी. नीचे जाने पर हमें अपने देश की शिक्षा का पता लग जाता है,आज होटलों में बच्चे काम करते हुए देखे जाते हैं,हमारी सरकार ने इसके लिये भी (शिक्षा का अधिकार)योजना हमारे लिये बनाई है|जिसमें ६ से १४ वर्ष तक के बच्चों की शिक्षा का निःशुल्क प्रावधान है, परन्तु हम उसका उपयोग नहीं करना जानते,जब हमारे समाज में शिक्षा नहीं होगी तो जागरूकता का प्रश्न अपने आप ही समाप्त हो जाता है,और जब जागरूकता नहीं होगी तो हम एक सही सरकार कैसे चुन सकते हैं?जब हमें ज्ञान ही नहीं है कि कौन प्रत्याशी सही है और कौन गलत?
फिर भी यह देख कर अच्छा लगता है कि हमारे देश में धीरे-धीरे पारदर्शिता बढ़ रही है|हमारे पास (सूचना का अधिकार,लोकवाणी ) जैसी शक्तियां हैं|परन्तु हम यदि शिक्षित  ही नहीं होंगे तो हमारे लिये इन प्रावधानों का क्या मतलब है?
आज हमारे देश में भ्रष्टाचार ने एक व्यापक रूप ले लिया है,यदि ध्यान देंगे तो पता लगेगा कि कहीं न कहीं इस व्यवस्था से उपजी हुयी दुर्व्यवस्था के मूल में हम लोग ही हैं,ऐसे में कोई अन्ना या गांधी क्या कर सकता है?ऐसे ही समाया का पूर्वानुमान शायद कवी इकबाल ने कर लिया था तभी उन्होंने कहा था-
     "संभल जाओ ऐ हिन्दोस्तान वालों,
      क़यामत आने वाली है 
      तुम्हारी बरबादियों के तस्करे हैं आसमानों में|
      ना संभलोगे तो मिट जाओगे एक दिन,
      तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में||" 
फिर भी आशा कि किरण अभी बाकी है.स्थिति को बद से बदतर होने से बछाया जा सकता है|लेकिन इसके लिये हमको आपसी भेदभाव भूलकर,प्रेमपूर्वक,राष्ट्रीयता के भाव में रमकर,दृढ़ प्रतिज्ञ आज एक साथ स्थितियों को बदलने का प्रयास किया जाना चाहिए|ऐसी  स्थति पर राष्ट्र कवि श्री मैथली शरण गुप्ता जी द्वारा प्रणीत नमन पंक्तियाँ अक्षरसः उपयुक्त प्रतीत होती हैं-
       "हम कौन थे, क्या हो गए हैं,और क्या होंगे अभी|
        आओ विचारें आज मिलकर हल होंगी समस्याएं सभी||"
                                                                                                                           ---आनंद सावरण ---

  

Thursday, March 31, 2011

दो चार पलों का मिला प्रकाश प्रभु से उपहार सखे
न रोको खामोशी के तालों से
भाव किरण का आना जाना 
उर विहाग को उड़ने दो
स्वछन्द विचारों के नभ में
अंतस में चमक रहा जो हीरा
मत रोको उसका बाहर आना 
                                      ---आनंद सावरण---

Tuesday, March 22, 2011

---------कशमकश --------

जिन फूलों को खिलना न था 
कैसा शिकवा उनके मुरझाने पर
जो रिश्ते कभी अपने ही न थे
कैसा शिकवा उनके टूट जाने पर
वक़्त की आंधी ने पर कतरे हों जिस तितली के
कैसी शिकायत उसके न उड़ने पर
जो वस्तु थी हमसे अधिकारातीत 
कैसा गिला उसके खो जाने पर
जिस ख़ुशी पर मेरा नाम लिखा न हो प्रभु ने
कैसा गिला उसके न मिलने पर                                             
                                          ---आनंद सावरण---

Monday, February 28, 2011

---दिल तो दे ही दिया है,जान तुझको देंगे हम---

दिल तो दे ही दिया है,जान तुझको देंगे हम
कसम खुदा की ये ईमान तुझको देंगे हम
                                                        मुझसे क्या भूल हुयी,तुने न मुझे माफ़ किया
                                                        हाय रब्बा मेरे तूने भी न इन्साफ किया
घर तो क्या छोटा सा संसार तुझको देंगे हम 
कसम खुदा की सारा प्यार तुझको देंगे हम
                                                        दिल में मेरे सपने संजोये मैंने तेरे लिए
                                                        सारी दुनिया के रंग रंगाये मैंने तेरे लिए
चाँद सूरज तो क्या आकाश तुझको देंगे हम
हज़ार रंगों की बरसात तुझको देंगे हम 
                                                        मरे प्रिये केवल मेरे पे तुम विश्वास करो
                                                        सारी दुनियां को छोड़ मेरे पे तुम आस धरो 
आदि से अंत तक सर्वस्व तुझको देंगे हम 
कसम खुदा की ये वर्चस्व तुझको देंगे हम                
                                                       ---आनंद सावरण ---

Friday, February 25, 2011

---------क्या लिखूं?--------

क्या लिखूं?
रस अलंकार जोड़कर 
या काव्यधारा छोड़कर
हुआ आज मैं असहाय
नहीं सूझ रहा कोई उपाय
शब्द नहीं रहे हैं सध
कलम गयी ही बंध
सोचता हूँ मैं पड़ा
कहाँ खो गयी मेरी प्रेरणा
लिखने का करता हूँ प्रयास
पर शब्द नहीं अब मेरे पास
जग रहा नहीं कोई भाव है
ज़िन्दगी तैरती जाती
जैसे बिन पानी के नाव है....
                                  ---आनंद सावरण---

Wednesday, February 9, 2011

--------प्रीति का रंग--------

प्रीति का रंग जब से मैंने चढ़ा पाया है
चाँद सूरज तो क्या आकाश नया पाया है
                                                      बीता पतझड़ लगा मौसम नए बहारों का
                                                      प्रकाश नित नया झलका नए सितारों का
दूर कितनी भी रहो फिर भी मुझको लगता है
साथ मेरे हर एक पल तुम्हारा साया है
                                                      प्रीति का रंग जब से मैंने चढ़ा पाया है
                                                      चाँद सूरज तो क्या आकाश नया पाया है
विचार मुक्त हैं गीतों में नया भाव जगा
छंद मुक्तक और दोहों में नया चाव जगा
                                                      काफिया तंग था मेरा पर अब तो ऐसा लगता है
                                                      भावगीतों ने नया मर्म फिर जगाया है
प्रीति का रंग जब से मैंने चढ़ा पाया है
चाँद सूरज तो क्या आकाश नया पाया है
                                                       बांसुरी होंठ चढ़ी धुन भी नयी सजने लगी
                                                       कली भी पुष्प में अब रंग नया भरने लगी
हंसी में जलतरंग साँसों में उसके मधु सी महक
दिल है तेरा सातों कंचन भी उसकी माया है
                                                        प्रीति का रंग जब से मैंने चढा पाया है
                                                         चाँद सूरज तो क्या आकाश नया पाया है
                                                                                                ---आनंद सावरण---

Wednesday, February 2, 2011

----चित्र कैसे बनता है?----


चित्र निरूपण इसलिए ताकि स्वयं सृजन में डूब जाएँ|जीवन एक कला है|कला एक ध्यान है|कोई भी कार्य ध्यान बन सकता है,यदि हम उसमें डूब जाएँ|इसलिए तकनीशियन मात्र न बने रहे|यदि आप केवल एक तकनीशियन तो पेंटिंग अपनी पूर्णता को कभी नहीं पाएगी,वह ध्यान नहीं बन सकती|हमें पेंटिंग में पूरी तरह डूब जाना होगा|पागल की तरह उसमें खो जाना होगा|इतना खो जाना होगा कि हमें यह भी खबर न रहे कि हम कहाँ जा रहे हैं,कि हम क्या कर रहे हैं,कि हम कौन हैं?यह पूरी तरह खो जाने कि स्थिति ही ध्यान होगी|इसे घटने दें|चित्र हम न बनाएं बल्कि उसे बनने दें|मेरा मतलब यह नहीं कि हम आलसी हो जाएँ|फिर तो वह कभी बन ही नहीं पायेगा|हमें पूरी तरह से सक्रिय होना है,फिर भी कर्ता नहीं बना है|यह पूरी कीमिया है,पूरी कला है|
कोरे कागज़ पर सहज रहे कुछ मिनटों के लिए ध्यान में उतर जाएँ|जीवन रुपी कैनवास के सामने शांत हो कर बैठ जाएँ|यह सहज लेखन जैसा होना चाहिए जिसमें हम लेखनी हाँथ में लेकर शांत बैठ जाते हैं और अचानक हाँथ में स्पंदन सा महशूस होता है|हम भलीभांति जानते हैं की हमने कुछ नहीं किया|हम तो सिर्फ शांत-मौन बैठकर प्रतीक्षा कर रहे थे|एक स्पंदन सा हांथों में होता है और वह खुद-ब-खुद गतिमान हो उठता है,और कुछ उतरने लगता है|
यह सृजन आहिस्ता प्रारंभ करें,ताकि आप बीच में न आयें|आपके शोख ज़ज्बात सृजन काल को हिला डुला न दें|आप बाद में मायूश न हों|आप वर्षा काल की तड तड पड़ती हुयी बूंदों की चोट को सहते गुलाब की पंखुड़ियों की तरह सहज रहे|जो भी भीतर से बहे बहने दें,और उसमें लीन हो जाएँ|शेष सब कुछ भूल जाएँ|कला सिर्फ कला के लिए तथा समाज के लिए कुछ अच्छा करने के लिए हो तभी वह ध्यान है|और कोई लक्ष्य नहीं होना चाहिए|
हमें तो अपनी पेंटिंग में,अपने नृत्य में,श्वास में,गीत में,रचना में,अपने जीवन में पूरी तरह खो जाना चाहिए|जो भी हम कर रहे हैं उसमें बिना किसी नियंत्रण के हमें पूरी तरह खो जाना चाहिए|शेष कुछ न बचे,अपने आप जीवन रुपी वीणा सहसा झनझना उठेगी|  
                                                                                                                                 ---आनंद सावरण--- 

Tuesday, January 25, 2011

---मन के हारे हार है, मन के जीते जीत---

बढ़ती जाती है जिज्ञासा
जीवन की कुटिल कहानी में
बढ़ती जाती है प्यास बहुत
ज्यों-ज्यों घुसता हूँ पानी में
प्यासा तन है प्यासा मन है
प्यासा जीवन निज आँगन में
जैसे प्यासा बादल कोई
भटक रहा हो सावन में
जब-जब में सोचा करता
जीवन को जी लूँगा हंसकर
तब-तब में रोया करता
अपने जीने के ढर्रे पर
जब-जब में हाँथ बढाता हूँ
सुन्दरता का मतवाला होकर
तब-तब गुलाब न पाता हूँ
कांटे घायल कर देते कर
जब-जब में चलने की  कोशिश में
मैं अपना पाँव बढाता हूँ
तिल भर चलने की बात दूर
मैं वहीँ ठोकरें खाता हूँ
व्यर्थ है मेरा जीना
ये जीना भी कोई जीना है
जिसको जीने का नाम मिला
लगता है जैसे रोना है
कुछ भी हो
मैं जीने की कभी आश छोड़ ना पाऊंगा
कितना भी में थकता जाऊं
मैं मंजिल स्वयं बनाऊँगा
में तिनका हूँ तो क्यों रोऊँ
कुछ तो तूफ़ान को रोकूंगा
बह जाऊं हवा के साथ अगर
फिर भी मैं जंग जीत लूँगा
हवा बहा ले जाए मुझे
सूखी नदी में डुबोने को
फिर भी जीत मेरी होगी
कुछ खोने पर कुछ पाने को
डूब रहा हो व्यक्ति कोई
मैं उसको आश बढूंगा
उसे बचा न पाने पर भी
मैं विजयी कहलाऊँगा
                      ----आनंद सावरण ---





Wednesday, January 19, 2011

--------अनुत्तरित प्रश्न --------

मष्तिष्क कि अंतस गहराइयों में
जीवन कि मजबूत अर्गलाओं से
बंधे सहमे कुछ अनुत्तरित प्रश्न
आंदोलित कर देते हैं अंतर्मन को
और लगा देते हैं प्रश्चिन्ह सामाजिक व्यवस्था पर
आखिर क्यों?
दुनियाँ को रोटी देने वाला किसान
सोता है भूखे पेट खलिहानों में
बड़ी-बड़ी इमारतों का सृजनकर्ता
मजदूर रहता है फूश के झोपड़ों में
आखिर क्यों?
मजदूर के खून कि कीमत
कम आंकी जाती है मोटे सेठ के पसीने से
आखिर क्यों?
धन को माया और ईश्वर को सर्वरक्षक बताने वाले
आधुनिक संत करते हैं धन का महा सृजन
और देते रहते हैं प्रवचन
सुरक्षा गार्डों कि अनिवार्य मौजूदगी में
आखिर क्यों?
धनी व्यक्ति को हो जाता है माधुमेय
सब कुछ होते हुए भी वह पीता है सिर्फ करेले का कड़वा जूस
और एक जो है गरीब
सोता है भूखे पेट
सड़क के किनारे
                     ---आनंद सावरण ---

Sunday, January 16, 2011

---अपनी पहचान एक विन्दु के रूप में---

समष्टि महान है.गुरु है,गंभीर है|किन्तु समष्टि का आधार क्या है?प्रत्येक प्रतिपाद्य का एक आद्य होता है|उसी तरह समष्टि का व्यष्टि है|सिन्धु का आधार विन्दु है|प्रत्येक समष्टि व्यष्टियों के समूह से बनती है|सिन्धु का मूल आधार विन्दु है|विन्दु सिन्धु में अपनी पहचान ,अस्तित्व खो देता है,किन्तु यह विलयन,अस्तित्व का समर्पण अपने को खो देना,बिंदु को सिन्धु में गँवा देना ,एक बड़ी सत्ता के लिए,आत्मसमर्पण,यह भाव कितना उद्दात है|उदग्र रूप से अपने को विलीन कर देना,अपनी संपूर्ण विशेषताओं को एक बड़े समुदाय में मिला देना महानता की,बड़प्पन की पराकाष्ठा है|
विन्दु का अपने आप में क्या महत्व है,यह सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों तरीकों से महत्त्वपूर्ण है|स्वाति की एक विन्दु जो बादलों से गिरती है रेगिस्तान में विलीन हो जाती है |वनस्पति पर गिरकर मोती सी चमक देती है|यदि इसे कोई विषधर पान कर ले तो वह विष बिंदु बन जाती है|यही बिंदु यदि खुली खुली हुयी सीपी में पड़ जाए तो मोती बन जाती है|जीवन का विन्दु अनमोल है |यदि यह सीपी में पड़ जाए तो मोती बन जाता है,यह विषधर पान कर ले तो विष बिंदु बन जाता है|प्रत्येक बिंदु स्वयं व्यष्टि रूप में है|उसकी सकारात्मक क्षमता ,अपने परिपूर्ण रूप में किसी भी समुदाय में खो देने से बड़ी हैं|स्वयं को प्रत्येक स्थल पर अपनी पहचान स्पष्ट करते हुए अपने विचारों,सोच,व्यक्तित्व,कार्यक्षमता ,कर्मठता ,एवं कृतित्व से संपूर्ण समाज एवं मानवता को आप्यायित करते हुए वक्तित्व का निदर्शन ही सिन्धुवत है|
                                                                  ------आनंद सावरण -------