कोरे कागज़ पर सहज रहे कुछ मिनटों के लिए ध्यान में उतर जाएँ|जीवन रुपी कैनवास के सामने शांत हो कर बैठ जाएँ|यह सहज लेखन जैसा होना चाहिए जिसमें हम लेखनी हाँथ में लेकर शांत बैठ जाते हैं और अचानक हाँथ में स्पंदन सा महशूस होता है|हम भलीभांति जानते हैं की हमने कुछ नहीं किया|हम तो सिर्फ शांत-मौन बैठकर प्रतीक्षा कर रहे थे|एक स्पंदन सा हांथों में होता है और वह खुद-ब-खुद गतिमान हो उठता है,और कुछ उतरने लगता है|
यह सृजन आहिस्ता प्रारंभ करें,ताकि आप बीच में न आयें|आपके शोख ज़ज्बात सृजन काल को हिला डुला न दें|आप बाद में मायूश न हों|आप वर्षा काल की तड तड पड़ती हुयी बूंदों की चोट को सहते गुलाब की पंखुड़ियों की तरह सहज रहे|जो भी भीतर से बहे बहने दें,और उसमें लीन हो जाएँ|शेष सब कुछ भूल जाएँ|कला सिर्फ कला के लिए तथा समाज के लिए कुछ अच्छा करने के लिए हो तभी वह ध्यान है|और कोई लक्ष्य नहीं होना चाहिए|
हमें तो अपनी पेंटिंग में,अपने नृत्य में,श्वास में,गीत में,रचना में,अपने जीवन में पूरी तरह खो जाना चाहिए|जो भी हम कर रहे हैं उसमें बिना किसी नियंत्रण के हमें पूरी तरह खो जाना चाहिए|शेष कुछ न बचे,अपने आप जीवन रुपी वीणा सहसा झनझना उठेगी|
---आनंद सावरण---
1 comment:
शब्द और भाव दोनों ही ओशो से प्रेरित लग रहे हैं
प्रेरणा कही से भी ली जाये पर मौलिकता बनी रहनी चाहिए
इस उच्चतम अभिव्यक्ति के लिए ढेरों शुभकामनाएं
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