Saturday, February 15, 2014

-------तुम हो गयी हो अब कलंकित------


                       
तुम
हो गयी हो कलंकित
यूँ अकारण अब
विलाप नहीं सुहाता 
तुम पर
तुम जाती थी
उससे मिलने,बतियाने
ऐसा क्या कह आती थी
जो मैं गा उठता था



खैर!
मेरी छोडो
अपनी समझो
सुना था तुम
क्रांति लाती हो
क्या वहां भी
कर लिया स्वत्व का सौदा


अरे कविता!!
तुम तो भावना की बहन हो
आदर्श की बेटी हो
परिस्थितियां तुमने बदली
अब ये अधोपतन


खैर!!
इसे भी छोडो
सुना था तुम
व्याकरण की
परिधि में नहीं रहती
वैयाकरणों ने
वहां भी की कोशिश
तुम्हे बांधने की
तुम भी चढ़ाई गयी
खरे और खोटे की
कसौटी पर
छीनी गयी तुम्हारी
स्वतन्त्रता


खैर!!
तुमसे इतनी उम्मीद क्यूँ??
नारी हो न
द्वापर में
कृष्णा के रहते
होगा ही चीर हरण
त्रेता में
राम ही लेंगे
तुम्हारी अग्नि परीक्षा
और कलियुग में
तुम्हारे ही रक्षक
बिकाऊ कलमची
बचा न पाएंगे
तुम्हारी अस्मिता


होगा खिलवाड़
तुम्हारे ही अंतर से
कब से रो रही हो
अब तो मौन साधो
अपनी उस
परम्परा के लिए
जिसमे कबीरा,तुलसी
और मीरा थे!!!
---आनन्द सावरण ----

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