अपनी फीकी मुस्कान संजोये
सैलाब बनकर उमड़ता है
लोगों की कल्पनाओं में
उनके हृदायांकुर से
फूट पड़ती हैं
संबंधों और भावनाओं की
कपोल कल्पनाएँ
कभी मामा बनकर
बच्चों को कराता है दुग्धपान
तो कभी खिलौना बन
बहलाता है उनका मन
कभी बनता है
प्रेमियों के लिए
प्रेमिका का मुख मंडल
कभी बनाता है
करवाचौथ में स्त्रियों का पूज्य
पति की उम्र बढाने को
तो कभी बनता है पोस्टमैन
भाइयों तक पहुचाता है
बहनों का सन्देश
पर कभी-कभी
चाँद बनकर उभरता है
टूटे दिलों में असहनीय दर्द
और कभी अपनी सुन्दरता के लिए
बन जाता है इर्ष्या का पात्र
जब कहीं से कोई "मुक्तिबोध"
कहता है
चाँद का मुंह टेढा है
---आनंद सावरण ---
3 comments:
perfect. this kind of tuned expression deserves the best compliment. just keep it up.
यूं ही लिखते रहो, यूं ही बढ़ते रहो
नित सफलता के नव गीत गढ़ते रहो
हो कठिन चाहे जितनी चढ़ाई भले
मन में विश्वास लेकर के चढ़ते रहो
हर जुबान पे तेरा छंद हो या ना हो
बस दिलों में 'आनंद' लिखते रहो.
nice poems!keep up the good work.best wishes.
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